ग़ज़लें
[3]
कौन कहता है वो अकेली है
आस जीने की जब सहेली है
भाग्य बिगड़ा है वक्त के हाथों
मुफ्त़ बदनाम ये हथेली है
उम्र गुजरी, गुज़र गईं सदियाँ
ज़िन्दगी आज तक पहेली है
चाँद मांगा ग़रीब बच्चे ने
चाँदनी फिर ये आज मैली है
मन की पीड़ा यूँ रोज़ सजती है
जैसे दुल्हन कोई नवेली है
ज़िन्दगी की चुभन है कांटों सी
न ये चम्पा है न चमेली है
मैंने देखा है खंड़र में 'श्वेता'
साँस लेती सी इक हवेली है
***
[4]
फ़ैसला ये ज़रा सा मुश्किल है
गर्म मौसम है या मिरा दिल है
हद हुआ करती है समंदर की
आँसुओं का न कोई साहिल है
उससे मिलना भी उससे बचना भी
वो ही हाफ़िज है वो ही क़ातिल है
अहले–दिल चल पड़े तो राह बनी
और जहाँ रूक गए वो मंजिल है
ख़ुद ही वो शम्मा ख़ुद ही परवाना
उसकी महफ़िल अजीब महफ़िल है
दास्ताने–हयात थी आधी
उससे मिलकर हुई मुकम्मिल है
सुबह आएगी ताज़ा–दम होके
रात 'श्वेता' ये माना बोझिल है
***
-श्वेता गोस्वामी
1 Comments:
Miss sweta ji ! your poetry is realy good. keep it up.
R.Laxmi,patana
Post a Comment
<< Home